Sunday, September 17, 2017

मैं बरगद का पेड़

मैं बरगद का पेड़, खड़ा हूँ यहां पुश्तों से।  इंसानों की कई नस्लें देखी हैं मैंने, जाने कितने सावन बदलते देखे हैं, सदियाँ बीत गयी हैं यहां खड़े खड़े।  एक समय था जब मेरी छाव की ओट में गांव की चौपालें सजती थी, पंचायतों के कई अच्छे-बुरे फैसलों का गवाह रहा हूँ मैं, अनेकों सही-गलत फैसलों को चुप - चाप खड़े - खड़े सुना है मैंने। समय बदला, मेरी उम्र बढ़ी तो मेरी जटाओं ने मुझे संभाला, आखिर बुढ़ापा सबका आता है और बूढ़ा होने के बाद कोई भी सहारा ढूंढता है, जो मेरी जटाओं से मुझे मिला है। आखिर हूँ तो बरगद का पेड़ ही। मेरी विशाल टहनियों पर अनेकों झूले लटके देखे है मैंने, और इन झूलों पर अनेकों बच्चे झूल-झूल कर बड़े हुए हैं मेरे सामने ही, और एक बार जब बच्चे आते थे मेरे करीब, तो मानो मेरा बचपन लौट आता था, उनके झूलों का वजन उठाना मेरी विशाल शाखाओं के लिए बहुत बड़ी बात नहीं थी, अतः, इन बच्चों को झूलते देख मेरी भी शाखायें झूम उठती थी, फिर कुछ बच्चे ऐसे भी होते थे जिन्हे झूलों पर आनन्द न आता था, उन्हें तो मुझपर चढ़ने में मज़ा आता था, और मुझे भी इन बच्चों के करीब रहने का एक अच्छा मौका मिल जाता था।
समय और बदला अब मै बेहद बूढा हो चला हूँ ।  इंसान मुझे बूढ़ा बरगद कह कर पुकारते हैं, शायद, इसी वजह से अब मुझपर कोई झूले नहीं हैं। न ही कोई चौपालें लगती है, और न ही मेरी घनी छाँव के तले पंचायतें सजती हैं। बहुत अकेला - अकेला सा हो गया हूँ मै अब। अब मेरे तने के करीब, इंसान अपने पूजने वाले भगवानों की मूर्तियां फेंक कर चले जाते हैं। अब जा कर समझ आने लगा है की जब भगवान् की कोई औकात नहीं है - जो मूर्तियां यह इंसान इतने गर्व और प्रेम से ले कर आये थे, जिससे भगवान् का प्रतीक समझ कर पूजा की सालों तक, उस मूर्ती के पुराने पड़ते ही उसे बूढ़े बरगद के पास फेंक कर चले गए, तो मुझ जैसे बूढ़े बरगद की किसे ज़रूरत? आखिर इतना विशाल हो गया हूँ की इन इंसानों की तेज़ी से बढ़ती सुविधाओं की मांग की राह में रोड़ा बन रहा हूँ शायद। जो हज़ारों इंसानों को एक जगह से दूसरी जगह ले कर जायेगी। आखिर ऐसी महत्त्वपूर्ण चीज़ के सामने मेरी क्या औकात? आखिर मै कौन होता हूँ इंसान की प्रगति को रोकने वाला? आखिर मैं किसे कहाँ से कहाँ ले जाता हूँ, जो काम यहां बनने वाली रेल गाड़ी करेगी?
मै तो बस खड़ा हूँ यहाँ सदियों से एक ही जगह फैलता हुआ अपनी मौत का इंतज़ार करता उन पुराने दिनों को याद करता जब मेरी छाओं के इर्द गिर्द इन इंसानों के पूर्वजों की सारी ज़िन्दगी घूमती थी, रात को मै उनको आराम की नींद, दिन में झुलसा देने वाली गर्मी से आराम, तो, पूरे गांव को और राहगीरों को मेरी ठंडी छाव में बने कुएं से ठंडा मीठा जल मिलता था, पर अब वह सब इंसानों के लिए ज़रूरी चीज़ें कहाँ रह गयी हैं? कूआं तो कब का सूख गया है, तो राहगीर भी नहीं आते गर्मी के मौसम में कुएं का ठंडा पानी पीने और मेरी ठंडी छाव में कुछ देर आराम करने। आखिर मै एक बरगद का पेड़ ही तो हूँ। खड़ा हूँ यहाँ सदियों से, इंसानों की कई पुश्तें देखी हैं मैंने, अब इन्हें मेरी ज़रुरत नहीं है, सो, कल काट दिया जाऊँगा। क्योंकि मेरी जटाओं ने मुझे सहारा देने के लिए इन इंसानों की धरती पर कुछ ज़्यादा जगह ले रखी है।

मैं बरगद का पेड़!

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