Thursday, April 14, 2016

मैं बरगद का पेड़

मैं बरगद का पेड़, खड़ा हूँ यहां पुश्तों से, इंसानों की कई नस्लें देखी हैं मैंने | जाने कितने मौसम बदलते देखे हैं, सदियाँ बीत गयी हैं यहां खड़े-खड़े | एक समय था जब मेरी छाँव की ओट में गांव की चौपालें सजती थी | इन इंसानों की पंचायतों के कई अच्छे-बुरे फैसलों का गवाह रहा हूँ मै, अनेकों सही-गलत फैसलों को चुप-चाप खड़े-खड़े सुना है मैंने | समय बदला मेरी उम्र बढ़ी तो मेरी जटाओं ने मुझे सम्भाला | आखिर बुढ़ापा सब का आता है, और बूढा होने के बाद कोई भी सहारा ढूंढता है, जो की मेरी जटाओं से मुझे मिला है, आखिर हूँ तो बरगद का पेड़ ही |

मेरी विशाल टहनियों पर अनेकों झूले लटके देखे हैं मैंने, और इन झूलों पर अनेकों बच्चे झूल-झूल कर बड़े हुए हैं मेरे सामने ही, और एक बार जब बच्चे आते थे मेरे करीब, तो मानो मेरा बचपन लौट आता था | उनके झूलों का वजन उठाना मेरी विशाल शाखाओं के लिए बहुत बड़ी बात नहीं थी, अत:, इन बच्चों को झूलते देख मेरी भी शाखाएं झूम उठती थी | फिर कुछ बच्चे ऐसे भी होते थे जिन्हें झूलों पर आनंद न आता था, उन्हें तो मुझपर चढ़ने में मज़ा आता था, और मुझे भी इन बच्चों के करीब रहने का एक अच्छा मौका मिल जाता था |

समय और बदला अब मैं बेहद बूढा हो चला हूँ, इंसान मुझे बूढा बरगद कह कर पुकारते हैं, शायद, इसी वजह से अब मुझपर कोई झूले नहीं हैं | न ही कोई चौपालें लगती हैं, और न ही मेरी घनी छाँव के तले पंचायतें सजती हैं | बहुत अकेला-अकेला सा हो गया हूँ मैं अब | अब मेरे तन के करीब इंसान अपने पूजने वाले भगवानों की मूर्तियां फेंक कर चले जाते हैं | अब जा कर समझ आने लगा है की जब भगवान की कोई औकात नहीं है - जो मूर्तियां यह इंसान इतने गर्व और प्रेम से ले कर आये थे, जिसे भगवान का प्रतीक समझ कर पूजा की सालों तक, उस मूर्ति के पुराने पड़ते ही उससे बूढ़े बरगद के पास फेंक कर चले गए, तो मुझ जैसे बूढ़े बरगद की किसे ज़रुरत ? आखिर इतना विशाल जो हो गया हूँ की इन इंसानों की तेज़ी से बढ़ती सुविधाओं की मांग की राह में रोड़ा बन रहा हूँ | शायद इसीलिए अब मुझे काटने की तैयारी चल रही है | जहां मैं आज खड़ा हूँ उस जगह से कुछ सालों में तेज़ गति से दौड़ती रेल गाडी चलेगी, जो हज़ारों इंसानों को एक जगह से दूसरी जगह ले कर जाएगी | आखिर ऐसी महत्त्वपूर्ण चीज़ के सामने मेरी क्या औकात ? आखिर मैं कौन होता हूँ इंसान की प्रगति को रोकने वाला ? आखिर मैं किसे कहाँ से कहाँ ले जाता हूँ, जो काम यहां बनने वाली रेल गाडी करेगी ?

मैं तो बस खड़ा हूँ यहां सदियों से, एक ही जगह, फैलता हुआ, अपनी मौत का इंतज़ार करता, उन पुराने दिनों को याद करता जब मेरी छाँव के इर्द-गिर्द इन इंसानों के पूर्वजों की सारी ज़िंदगी घूमती थी | रात को मैं उन्हे आराम की नींद, दिन में झुलसा देने वाली गर्मी से आराम देता, तो पूरे गांव को और राहगीरों को मेरी ठंडी छाँव में बने कुएं से ठंडा मीठा जल मिलता था | पर अब वह सब इंसानों के लिए ज़रूरी चीज़ें कहाँ रह गयी हैं ? कुआं तो कब का सूख गया है, तो राहगीर भी नहीं आते गर्मी के मौसम में कुएं का ठंडा पानी पीने और मेरी ठंडी छाँव में कुछ देर आराम करने |

आखिर मैं एक बरगद का पेड़ ही तो हूँ, खड़ा हूँ यहां सदियों से, इंसानों की कई पुश्तें देखी हैं मैंने, अब इन्हें मेरी ज़रुरत नहीं है, सो, कल काट दिया जाऊंगा, क्योंकि मेरी जटाओं ने मुझे सहारा देने के लिए इन इंसानों की धरती पर कुछ ज़्यादा जगह ले रखी है!

मै बरगद का पेड़.....

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