कार्य प्रगति पर है...
तो साहब, बात कुछ ऐसी हुई की एक दिन सरकार का मन हुआ की कहीं बाहर घूम आएं। बहुत दिनों से कहीं बाहर नहीं गए थे। सुबह सुबह नहा- धो कर तैयार हुए, और रमेश बाबू, जो उनके सरकारी ड्राइवर थे, को फ़ोन घुमा दिया और तुरंत आने का आदेश ज़ारी कर दिया| सुबह- सुबह सरकार का फ़ोन आने से रमेश बाबू भी परेशान हो उठे, सोचने लगे की ऐसी क्या विपदा आ गयी है की सरकार, जो की सुबह नौ बजे से पहले उठते ही नहीं आज सात बजे ही फ़ोन कर के तुरंत आने का आदेश जारी कर रहे हैं। कहीं कोई बड़े बाबू या मंत्री साहब तो नहीं आ रहे हैं? इसी सोच में रमेश बाबू अपने सुबह- सुबह के नित्य कर्म निपटाने में मग्न हो गए। आखिर उनको जल्दी पहुचना था, पता नहीं क्या हुआ था।
आप सोच रहे होंगे की यह सरकार कौन हैं, जिनकी कहानी ले कर हम आपके सामने उपस्थित हुए हैं। तो साहब जान लीजिये, उत्तर प्रदेश में शहर एक है। सरकार इस शहर के कर्ताधर्ता हैं। सरकार की मर्ज़ी के बगैर कोई कहीं नहीं जा सकता। अजी, सरकार की तो बात ही निराली है। ऐसा नहीं है की सरकार का इतना रुतबा और इज्ज़त है की लोग सरकार से पूछे बगैर कहीं नहीं जाते, और ऐसा भी न मानें की सरकार की कोई इज्जत ही नहीं है, असल में बात यह है की सरकार - सरकार के एक अति सरकारी विभाग में उच्च पद पर तैनात हैं। पी. डब्लू. डी. का नाम तो सुना ही होगा आपने। अजी, आम भाषा में इसे (लो०नि०वि०) भी कहते हैं, लोक निर्माण विभाग, नहीं याद आ रहा? अपने दिमाग पर थोड़ा और ज़ोर डालिये, कहीं किसी कोने में आपको ऐसे किसी विभाग का ज़िक्र मिल ही जायेगा। अब क्या करें साहब, इनके काम ही कुछ ऐसे होते हैं। सड़क यह बनाते हैं और श्रेय सरकार ले जाती है, पुल यह बनाते हैं और श्रेय मंत्री ले जाते हैं, सड़क में गढ्ढ़े आप बनाते हैं और उसका ठीकरा भी इनके सर पर फूटता है। कोशिश कीजिये, यहीं कहीं आपके दिमाग के किसी कोने में पड़ा होगा वह वाक्या जब आपका पाला सड़क के किसी गढ्ढ़े से पड़ा होगा। जी हाँ, सही याद आया आपको, लापतागंज वाले लल्लन जी जहां काम करते थे, वही पी. डब्लू. डी.। अब विभाग सरकारी है तो काम भी सरकारी तरीके से ही होंगे। सरकारी विभाग, सरकारी काम, सरकारी तरीका और सरकारी बाबू भी। बिना हमारे सरकार की मर्ज़ी के एक फाइल इधर से उधर नहीं होती इस विभाग में।
इस विभाग में, अन्य सरकारी विभागों की भाँती, दिन की शुरुआत होती है दस बजे से, जब यहां कार्यरत सब बाबू लोग आना प्रारम्भ करते हैं। क्या? आपको लगा की दस बजे से सरकारी दफ्तर कार्यरत हो जाते हैं? अरे साहब, आखिर सरकारी कर्मचारी भी इंसान होते हैं। इनके भी आमतौर पर परिवार होते हैं, एक बीवी, दो बच्चे, माँ-बाप, उनका भी तो ख़याल रखना होता है। चलिए, अब बाबू लोग आना शुरू हो गए हैं, साढ़े दस बजे तक कुर्सियां भर जाती हैं। सब बड़े बाबू का इंतज़ार कर रहे हैं, जी हाँ, हमारे सरकार का। अब सबसे बड़े बाबू हैं इस विभाग में तो किसी से पहले आ जाएँ तो सरकार का रुतबा काम न हो जायेगा? इसीलिए, हमारे सरकार पौने ग्यारह बजे के बाद ही दफ्तर में प्रवेश करते हैं। अब जब सब आ गए हैं तो दिनचर्या का प्रारम्भ किया जाये, सरकार के आते ही बाहर से चाय की दुकान वाले छोटू को बुलवा भेजा जाता है, वह जा कर पहले सरकार को गिलास भर गर्मा-गर्म चाय देता है, इतने में सरकार की मेज़ पर समोसे भी पहुंच जाते हैं। इसके बाद छोटू पूरे दफ्तर में चाय देता है, और चाय के पीछे समोसे भी परोसे जाते हैं। चाय- समोसे का नाश्ता करते करते पता ही नहीं चलता की बारह कब बज गए। अब बारह बज ही गए हैं तो थोड़ा काम भी हो जाये, तो सरकार बड़े बाबू को बुलवा भेजते हैं, अजी, जो बड़े बाबू उनसे छोटे वाले बड़े बाबू हैं उनको। आखिर पंद्रह- बीस बाबुओं को संभालने के लिए एक से अधिक बड़े बाबुओं की ज़रुरत तो पड़ेगी ही, और, इन बड़े बाबुओं को सभालने के लिए लिए इनसे बड़े बाबुओं की ज़रुरत है। बुलावा मिलते ही बड़े बाबू आनन-फानन में कुछ फइलें इकठ्ठी कर के चल देते हैं सरकार के कमरे की तरफ। आधे घंटे बाद वापस आते हैं, और अपने पड़ोस में बैठे बाबू से दुखी लहजे में कहते हैं की साहब भी न क्या-क्या काम देते रहते हैं। अब फरमान जारी हुआ है की चूंकि चुनाव पास हैं, तो सड़कों के गढ्ढ़ों का कुछ करना पड़ेगा, मंत्री जी का फरमान है। अब इतनी गर्मी में इस भरी दुपहरी में कौन सड़कों के गढ्ढे गिनता फिरेगा। पर आज्ञा है तो काम करना ही पड़ेगा।
खैर, हम वापस आते हैं सरकार के पास। रमेश बाबू फटाफट तैयार हो कर सरकार के घर पहुंचे, तो सरकार को घर के बाहर, बागीचे में खड़ा पाया, सूट-बूट में आज सरकार एकदम क़यामत लग रहे थे। ऐसा प्रतीत होता था मानो सरकार या तो किसी विदेशी मेहमान से मिलने जा रहे हैं, या फिर दूसरी शादी करने के लिए लड़की देखने। अरे, लेकिन हिन्दू धर्म में और भारतीय कानून के मुताबिक तो दूसरा विवाह प्रतिबंधित है। तो क्या हुआ, सरकार आखिर सरकार हैं, जो जी में आएगा वह करेंगे। कौन रोक सकता है उनको, रमेश बाबू ने मन ही मन सोचा। फिर सरकार को आते देख गाड़ी से उतरकर गाड़ी का पिछला दरवाज़ा खोल दिया। सरकार पहुंचे, लेकिन सामान्यतयः पीछे बैठने वाले सरकार ने आज आगे रमेश बाबू के बगल में बैठने की ठान ली थी। रमेश बाबू अचंभित रह गए, लेकिन क्या करते, सरकार का जो जी में आएगा वह करेंगे। सो, रमेश बाबू आ कर अपनी, यानि की ड्राइवर सीट पर बैठ गए। सरकार ने रमेश बाबू को चलने का इशारा किया। चूंकि रमेश बाबू को कोई निर्देश नहीं मिले थे, उन्होंने ने पूछना ठीक समझा। साहब कहाँ ले चलूँ? दफ्तर? सरकार ने शांत मुद्रा में कहा, नहीं, आज हम शहर में हो रहे अपने विभाग के कार्यों की समीक्षा करेंगे। हमें उस जगह ले चलो जहां तुमने आखिरी बार हमारे विभाग का कार्य होते देखा था। रमेश बाबू ने अपने मस्तिष्क में ढूँढा और चल पड़े, उस सड़क पर जहां पुल बन रहा था। कुछ देर चलने के बाद, उनको याद आया की आगे सड़क खराब है, तो उन्होंने गाड़ी पीछे घुमाने में भलाई समझी, सोचा की घुमा कर दूसरी तरफ से ले चलेंगे सरकार को। यह देख कर सरकार ने सवाल कर दिया, बीच सड़क में गाड़ी क्यों घुमा रहे हो, रमेश बाबू ने कारण बताया तो सरकार ने कहा, कोई बात नहीं, चलो, देखते हैं। और रमेश बाबू ले चले गाड़ी सीधे पुल निर्माण में स्थान पर। कुछ दूर बाद वह इलाका आ गया, जहां सड़क पर गढ्ढ़े थे जिनसे रमेश बाबू सरकार को बचाना चाहते थे। लेकिन सरकार की आज्ञा कौन ठुकरा सकता था, ले चले गाड़ी गढ्ढों वाली सड़क में, या यह कहें सड़क वाले गढ्ढों में। बड़ी मुश्किल से धीरे-धीर सड़क पार हुई। और पार पहुँचते- पहुँचते रमेश बाबू ने जब सरकार की तरफ देखा तो दंग रह गए, सरकार के चेहरे पर मानो बारह बजे हुए थे। ऐसा प्रतीत होता था जैसे किसी ने सरकार को नंगे पाँव काँटों पर चलवा दिया हो। लेकिन क्या करें, चूंकि यह काम भी उनके ही विभाग का था, सरकार कड़वा घूँट पी गए और कुछ नहीं बोले। रमेश बाबू गाड़ी चलते रहे, और कुछ देर बाद पुल निर्माण के स्थल पर पहुंच कर गाड़ी रोक दी।
गाड़ी रोक कर रमेश जी सरकार के तरफ वाले दरवाज़े की तरफ लपके, और झट से पहुंच कर दरवाज़ा खोल दिया, और सरकार गाड़ी से उतर गए। निर्माधीन पुल की तरफ सरकार ने नज़र दौड़ाई तो लगा जैसे यह पुल बरसो से बन रहा हो, जगह जगह हरी- हरी काई जमी हुई थी, मानो कोई बरसो से आया न हो वहाँ। सरकार ने रमेश बाबू से पूछ ही लिया, की यह पुल कब से बन रहा है, और रमेश बाबू ने संकोचित लहजे में जवाब दिया, - साहब, यह पुल तो इस शहर में आपके द्वारा शुरू किया गया पहला कार्य था। करीब पांच साल हो गए हैं। सरकार से कुछ न कहा गया। कहते भी क्या? कुछ किया ही नहीं था उन्होंने। ऊपर से यह ड्राइवर उनके खुले ज़ख्मों पर नमक रगड़ रहा था। थोड़ी भारी आवाज़ में साहब ने कहा चलो यहां से। वापस आ कर गाड़ी में बैठे, और निकल पड़े। आगे कुछ दूर एक इलाके में सड़क पर काफ़ी वाहन इकठ्ठे हो रखे थे, सब हॉर्न बजा- बजा कर मानो लोगों का मनोरंजन कर रहे हों। कुछ देर हॉर्न की आवाज़ें सुनने के बाद लगा जैसे कोई मधुर संगीत बज रहा हो कानों में। अलग- अलग प्रकार के हॉर्न, और अब पीछे भी तीन- चार गाड़ियां आ कर हॉर्न बजने लग गयी थीं। कोलाहल देख कर साहब ने रमेश बाबू को उतर कर देखने को कहा, और फिर खुद भी उतर कर आगे बढे। उन्होंने क्या देखा की आगे सड़क का एक हिस्सा खुद पड़ा है और बहुत सारी मिटटी बाहर सड़क पर पड़ी है, और बगल में एक बोर्ड लगा हुआ है, जिसपर लिखा है, कार्य प्रगति पर है, असुविधा के लिए खेद है। सरकार को सारा माज़रा समझ आया, लेकिन फिर भी कुछ नहीं कर सकते थे, आखिर काम उनके विभाग का ही था। जैसे- तैसे वहाँ से बाहर निकले और रमेश बाबू को बोले की दफ्तर ले चलो। और रमेश बाबू समझ गए की अचानक से यह क्या हुआ। लेकिन बोले कुछ नहीं, सबसे अच्छे रास्ते से दफ्तर की तरफ चल पड़े।
घूमते- घूमते काफी देर हो चुकी थी। करीब पिछले चार घंटे से रमेश बाबू सरकार के कहने पर गाड़ी शहर में घुमा- घुमा कर अब दफ्तर की तरफ चल दिए थे। अचानक सरकार का सवाल आया, और कितनी दूर है दफ्तर? रमेश बाबू ने कहा - साहब अभी एक घंटा लगेगा और यह सुनते ही सरकार के माथे पर चिंता की लकीरें साफ़ दिखने लगी। काफी देर से सरकार नज़र दौड़ा- दौड़ा कर शौचालय ढूंढ रहे थे। आखिर प्रकृति की पुकार को कौन रोक सकता है? उसको जब आना होगा वह आएगी ही। आप सरकार हों या जमादार। आखिरकार एक जगह उनको दिख ही गया, और शौचालय देख कर ऐसी राहत मिली, मानो दो दिनों के प्यासे को ठन्डे पानी का सोता मिल गया हो तपते रेगिस्तान में। सरकार उतरे और दौड़े शौचालय की तरफ। पीछे से रमेश बाबू सरकार को दौड़ते हुए देख कर हँसने लगे, लेकिन इस बात का ख़याल रखा की सरकार को उनकी हँसी की आवाज़ सुनाई न दे। अब सरकार शौचालय के पास पहुंच कर अचानक रुक से गए। उनको देखते हुए रमेश बाबू अचंभित हुए। फिर सरकार ने अपने पॉकेट से रुमाल निकला, नाक पर रखा और फिर बहादुरी से आगे बढे मैदान-ए-ज़ंग में। वहाँ का नज़ारा सरकार को कुछ अच्छा नहीं लगा। जब सरकार को अच्छा नहीं लगा तो आपको भी नहीं लगेगा, इसीलिए हम बताएँगे नहीं, लेकिन, अगर आप जानने के लिए अत्यधिक उत्सुक हो रहे हों तो अपने आस- पास के किसी सरकारी शौचालय का रुख कीजियेगा, जी नहीं सुलभ शौचालय नहीं, दूसरे सरकारी वाले, जो आपका नगर निगम बनता है (अगर बनता है तो)। आपका जीवन सफल हो जायेगा, आपको मोक्ष की प्राप्ति हो जाएगी, अगर जीवित बच आये वहाँ से तो। खैर, हमारे सरकार निकले शौचालय से, वही नाक पर रुमाल पकडे, एक हाथ से। चेहरे पर सुकून का भाव साफ़ दिख रहा था। आगे बढे तो रमेश जी ने गाड़ी चालू कर दी। कुछ देर बाद रमेश जी को कुछ आवाज़ सुनाई दी, सरकार उन्हें पुकार रहे थे। रमेश जी ने उस तरफ देखा तो नज़ारा अचंभित कर देने वाला था, सरकार का कद अचानक से आधा रह गया था मानो किसी ने उनके पैर काट लिए हों। रमेश जी गाड़ी से उतरे और दौड़े सरकार की तरफ, तो क्या देखा, की सरकार बड़ी सी नाली में गिर पड़े हैं। रमेश जी ने कोलाहल में पूछ डाला की साहब इसमें कैसे गिर गए। सरकार ने अपनी आपबीती सुनाते हुए कहा की वह आ रहे थें, और उनके पैर रखते ही अचानक से इस नाली पर पड़ा हुआ पत्थर टूट गया और वह नाली में गिर पड़े। रमेश जी ने खैर खबर ली की कहीं चोट तो नहीं आई और सरकार ने कहा नहीं। फिर रमेश जी की मदद से सरकार उस नाली से बाहर निकले। उनके आधे पैर काले कीचड़ में सने हुए थे। और बदबू आ रही थी सो अलग। उन्होंने रमेश जी से पानी माँगा, लेकिन इस सुनसान इलाके में रमेश जी पानी कहाँ से लाते। सो उन्होंने कहा की साहब, आप इंतज़ार कीजिये, मैं पानी ले कर आता हूँ। और निकल पड़े पानी की तलाश में सरकार को वहीँ छोड़ कर। करीब आधे घंटे बाद जब रमेश जी पानी ले कर वापस आये तो सरकार वहाँ नहीं थे। इधर- उधर देखा तो ज़मीन पर काले- काले जूतों के निशान पीछे की तरफ जाते हुए दिखे, थोड़ी दूर जाने पर सरकार वहाँ से लौटते दिखे। पैर कुछ साफ़ से दिख रहे थे। रमेश जी दौड़ कर सरकार के पास पहुंचे और पैरों पर पानी डालते हुए कहा - साहब आपने कहाँ धो लिए पैर, मुझे तो आगे बहुत दूर तक जाना पड़ा तब जा कर एक घर दिखा जहां से पानी ले कर आया हूँ। पहले पता होता तो वहीँ चल लेते, आपको इतना चलना और इंतज़ार नहीं करना पड़ता। सरकार कुछ चुप से थे, मानो वह इस बात को और नहीं खींचना चाहते। पर रमेश जी के पूछने पर सरकार को बताना पड़ा की पीछे सड़क के एक गढ्ढ़े में बारिश की वजह से पानी भर गया था, वहीँ से धो कर आये हैं पैर।
दोनों वापस गाड़ी तक पहुंचे और रमेश जी ने थोड़ी देर बाद सरकार को दफ्तर पंहुचा दिया। सरकार दफ्तर पहुंचे, और रमेश जी को घर जा कर दूसरे कपड़े और जूते लाने का हुक्म दिया। और अपने कमरे में पहुंच गए। थोड़ी देर बाद कपड़े और जूते ले कर रमेश जी भी आ गए, और सरकार ने वस्त्र बदल लिए। रमेश जी के जाते ही चाय और समोसे आये, लेकिन सरकार ने कुछ और मन बना लिया था, उन्होंने बड़े बाबू को बुलवा भेजा और रोज़ की ही तरह बड़े बाबू आज भी फइलें ले कर सरकार के कमरे में गए। थोड़ी देर बाद वापस आये तो फिर अपने पड़ोस वाले बाबू से थोड़े अप्रसन्न लिहाज़ में बोलने लगे, यह साहब भी पता नहीं क्या- क्या हुक्म देते हैं। अब बोल रहे हैं की शहर में जितने कार्य हमारे विभाग की तरफ से हो रहे हैं उनका पूरा ब्यौरा तैयार कर के दो। अब इस काम पर कौन अपना माथा फोड़े। जाने दो आज आदेश किया है उन्होंने, कल भूल जायेंगे, मैं बैठता हूँ। पूछेंगे तो बोल दूंगा की साहब इसमें वक्त लगेगा, हम बहुत सारे काम करते हैं सबका ब्यौरा तैयार में वक्त तो लगेगा ही।
सरकार का दिन खत्म हुआ, और वह घर गए, अगले दिन सारी चीज़ें अपने ढर्रे पर। बाबू लोग दस बजे आने शुरू हुए, बड़े बाबू साढ़े दस बजे पहुंचे और सरकार अपने समय यानी पौने ग्यारह बजे, फिर सबने चाय पी, समोसे खाए और लग गए अपने काम करने में।
असुविधा के लिए खेद खोदा है ।
एक ज़रूरी (सरकारी) सूचना : इस कहानी के सभी पात्र, संस्थाएं एवम घटनाएँ काल्पनिक हैं और इनका असल ज़िन्दगी में किसी भी व्यक्ति, संस्था या घटना से कोई संबंध नहीं है। अगर भविष्य में इस कहानी से सम्बंधित कोई व्यक्ति अथवा घटना घटित होती है तो कृपया मुझसे संपर्क करें, मैं भविष्यवक्ता बन सकता हूँ। और ऐसा कोई व्यक्ति अथवा घटना अगर अतीत में हुई है तो कृपया मुझे माफ़ करें, मैं इतिहास में बहुत कमज़ोर था, बचपन से ही।
आई शप्पथ।
बढ़िया है !!!
ReplyDeleteधन्यवाद।
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